This Month in History: Centenary of Sabarmati
Ashram, June 1917
The
Satyagraha Ashram established by Mahatma Gandhi at Kochrab on 25 May 1915 was
shifted to a site on the bank of the river Sabarmati following an outbreak of a
plague in the middle of June 1917. From 1917 to 1930, the Sabarmati Ashram
served as one of the main centres of the Indian national movement. It was from
here that Mahatma Gandhi transformed his ideology into practices and also launched
his famous Dandi March.
Excerpts from
the Transcripts of the recordings of OHD:
Shri Anand T.
Hingorani (Inmate of Sabarmati Ashram, Author and Journalist)
... As far as I know, he (Mohandas
Karamchand Gandhi) started his Ashram
in Sabarmati in 1917, when he had returned from South Africa, with the object
of service of the country, and this service, he declared, was not to be
inconsistent with the universal good. He wanted to create a band of dedicated
workers for this purpose, by giving them training in this art of serving the
country and also the world. ... As his
whole life was guided by the twin principle of Truth and Non-violence, he,
therefore, gave primacy of place to the observance of these two virtues. But
one could not cultivate them, unless he also simultaneously practised some
other virtues – such as Brahmacharya (continence), Control of the
Palate, Non-stealing, Non-possession, Fearlessness, Removal of Untouchability
and Equality of Religions and Bread-Labour. It was just to give a training to
people in cultivation of these virtues, that he set up the Ashrams where those,
who felt drawn to these virtues, would live together and lead a community life....
The simple food, the simple dress,
the regular hours of prayer and work, etc., all these made for an honest,
austere living. The community life made us all conscious of our duties to the
society, to the country of our birth, and also to the world at large.
It is because Gandhiji believed in
a community life, that he set up Ashrams wherever he happened to live. When he
was in South Africa, he had founded a Phoenix Ashram there, which was his first
experiment in living a community life. Then, on returning to India, he started
the Sabarmati Ashram, and subsequently at places like Bardoli, Wardha and
Sevagram as and when the events took him there. This community life had a charm
of its own. It was a pleasure to eat in the common kitchen alongside other
Ashramites, and so also to offer prayers all together, and share in the common
chores of the Ashram. This ensured inter-mixing with one another to the good of
everyone.
Shri Chimanlal
Shah (Inmate of Sabarmati Ashram)
डॉ. हरि देव शर्मा : फिर यहां
[साबरमती] किस प्रकार से आश्रम बना ?
श्री कृष्णदास गांधी : ...जैसा काम कोचरब में चलता था वैसा ही कार्यक्रम धीरे-धीरे साबरमती में भी शुरू हुआ। वहां पहले हम तम्बू में रहते थे, फिर हमने वहां बांस की चट्टाइयों से कुछ झोपड़ियां खड़ी की, परंतु वहां इतनी दीमक थी कि रात भर में वह लोगों के ऊपर चढ़ जाती थी।
लेकिन धीरे-धीरे हमने वहां विकास कार्य शुरू किया और आश्रम के मुख्य कार्यक्रम
जैसे परिश्रम करना, स्वावलम्बन करना और खादी का काम करने का
वक्त भी मिल जाता था। बाद में धीरे-धीरे जब चर्खा शुरू हुआ तो ज्यादा-से-ज्यादा, बच्चों से लेकर बड़ों तक, जितना समय हमको मिलता था उसमें हम एक तो खादी का काम करते थे और
दूसरे जमीन साफ करके सब्जी
उगाने का। खेती का काम भी आश्रम में शुरू हुआ। बाद में यहां गोशाला भी शुरू हुई।
इस तरह तीन प्रवृत्तियां आश्रम में थीं और संडास सफाई की प्रवृत्ति भी यहां थी।
साबरमती आश्रम में संडास सफाई के लिए कोई भंगी नहीं रखा था। हम बच्चे और बड़े सभी
लोग संडास सफाई करते थे। और कोई नया आगांतु आश्रम में आता था तो बापू सबसे पहले
उनकी परीक्षा संडास सफाई का काम लेकर करते थे।
शर्मा
: यहां कुल कितनी जमीन थी ?
गांधी
: पहले थोड़ी थी, बाद में धीरे-धीरे
आस-पास की जमीन और ले ली क्योंकि खासतौर से जब गोशाला का काम बढ़ गया तो गोशाला के लिए और
जमीन की जरूरत हुई थी। इस प्रकार से मेरा ख्याल है कि आश्रम की जमीन धीरे-धीरे
बढ़ती हुई 200 एकड़ हो गई थी।
शर्मा
: यह कुछ साबरमती के किनारे या कुछ चंद्रभागा
में था ?
गांधी
: साबरमती और चंद्रभागा के बीच में एक बहुत
पुरानी जगह थी, वहां पर बहुत सी खाली जगह थी, वहां एक पुराना घास का बंगला था। हम लोग वहां थोड़े दिन रहे थे। अब वह
जगह तो नहीं है। वह सारी खाली जमीन बापूजी ने खरीद ली और फिर वहां पर गोशाला का
काम शुरू किया...।
Shri Krishnadas
Gandhi (Inmate of Sabarmati Ashram)
डॉ. हरि देव शर्मा : साबरमती आश्रम की प्रवृत्तियों के बारे में बताइए
?
श्री चीमनलाल शाह : साबरमती
आश्रम में बापूजी ने सूत कताई-बुनाई की मुख्य प्रवृत्ति शुरू की। एक वर्कशाप भी
चली और राष्ट्रीयशाला वहां शुरू की गई।
शर्मा
: आश्रम के लिए धन आदि कौन-कौन लोग देते थे ?
शाह
: सत्याग्रह में, साबरमती आश्रम को
मुख्य मदद करने वाले तीन व्यक्ति थे। एक तो जमनालाल बजाज, दूसरे जगजीवन झावेरी बम्बई के और तीसरे डॉ. प्राणजीवन मेहता रंगून
वाले। प्राणजीवन की तरफ से पांच सौ रुपए मिलते थे और जमनालाल जी और झावेरी की तरफ
से ढ़ाई-ढ़ाई सौ, इस तरह से एक हजार रुपया महीना हमको मिलता
था। उस समय के हिसाब से आश्रम के लिए एक हजार रुपया पर्याप्त था। बाकी छोटे-छोटे
कामों के लिए, जैसे खादी का काम, हरिजन सेवा और गोशाला सेवा के लिए,
जो खर्चे होते थे
उसके लिए बापूजी को दान मिलता रहता था और उससे दूसरे खर्चे निकल जाते थे।
शर्मा : एक
हजार रुपया किन कामों में खर्च होता था ?
शाह : आश्रमवासियों
के खर्च के लिए यह सारा रुपया खर्च होता था। वैसे हर काम के लिए इस तरह की व्यवस्था
थी कि पैसा मिलता रहता था जिससे वहां की व्यवस्था चलती थी।
...आश्रम
के प्रति व्यक्ति को बारह रुपया खर्चा दिया जाता था। उसमें से भोजन, वस्त्र, स्वाध्याय, आदि का खर्च हम लोग कर लेते थे। कुछ
लोग वेतनधारी भी थे जैसेकि महादेव देसाई, किशोरीलाल
मश्रूवाला, नारायण मोरेश्वर खरे, लेकिन
उस समय का वेतनमान बहुत कम रहता था।
शर्मा : क्या वेतन था उनका ?
शाह : पौन
सौ। पचहत्तर रुपए से ज्यादा
किसी का नहीं था। जिसका परिवार बड़ा हो, उनको उसी हिसाब से ज्यादा मिलता था। इस
तरह से हम सबको शुरू-शुरू में खर्चा मिलता था। मैं अपने लिए तेइस रुपए मासिक लेता
था। बाद में तीस-चालीस तक हो गया था लेकिन चालीस से ज्यादा नहीं बढ़ा और उसमें
मेरा उस समय का पूरा-पूरा खर्च निकल जाता था।
उस समय तीन व्यक्तियों को हम आदर्श व्यक्ति
मानते थे। विनोबा भावे, किशोरलाल भाई और मगनलाल गांधी। मगनलाल
गांधी का देहावसान तो जल्दी हो गया और विनोबाजी वर्धा चले गए, जमनालालजी उनको ले गए थे। किशोरलालजी वहीं रहे।
...राष्ट्रीयशाला में कताई का विषय तो था ही, बुनाई का भी था।
संगीत था और इसके इलावा सारी भाषाओं की अक्षरमाला आदि सबका वहां पूर्ण ज्ञान मिलता
था। वहां के शिक्षक बड़े तेजस्वी थे- किशोरलाल मश्रूवाला, काका साहब कालेलकर, पंडित नारायण मोरेश्वर खरे आदि शाला के
शिक्षक थे। उस समय हमारी राष्ट्रीयशाला और सरकारी शिक्षण में काफी फर्क था।