This
Day in History: The First Ashram Established by Mahatma Gandhi in India –
Satyagraha Ashram, Kochrab, 25 May 1915
On his return to India, Mahatma Gandhi wanted to set up
an Ashram to settle the small group of relatives and co-workers who had come
with him from South Africa and to enable them to resume the life of simplicity
and service in which they had been nurtured in South Africa. Gandhiji received
invitations to set up Ashram at several places, but he chose Ahmedabad
believing that he could best serve the people of the province of his birth.
Moreover, as a great textile centre, it was well suited for experiments in hand
spinning and weaving, which appeared to him the only viable supplementary jobs for the underworked and underfed masses in the villages of India. He
established the Satyagraha Ashram temporarily at Kochrab, a village near
Ahmedabad, in a bungalow belonging to a Barrister, Jeevanlal Vrajrai Desai. On
20 May 1915, Gandhiji arrived there and performed, with a cap as a head cover,
a house-entering ceremony of the new house. On 25 May 1915, he formally started
the Ashram to acquaint the nation with the method he had tried in South Africa.
Many flocked to it such as Mahadev Desai, Narhari Parikh and others. The Ashram
became a major centre for the followers of Gandhiji to practice constructive
work, satyagraha, self-sufficiency and other values, which would build up the
nation’s morale. The inmates not only strove for economic upliftment through
promotion of khadi, but also the removal of social evils such as
untouchability. They were being trained in the moral and emotional controls which
are integral elements for a Satyagrahi, and they observed a code of discipline,
rules and vows.
Some
excerpts from the transcript of the recording of OHD:
Smt.
Vanmala Desai (Daughter of Narhari Parikh, one of the first inmates of
Satyagraha Ashram at Kochrab)
डॉ हरि देव शर्मा : आप साबरमती आश्रम में कौन से साल में आई थीं ?
श्रीमती वनमाला देसाई : ... गांधीजी
1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस आए। वे बैरिस्टर थे। उन दिनों अहमदाबाद के वकीलों
की गांधी में बहुत रूचि थी। वे सब गुजरात क्लब में मिला करते थे। महात्मा गांधी
को उस वक्त महात्मा नहीं कहा जाता था। उनको गांधी साहब कहते थे। गांधीजी के बारे
में बहुत सी बातें गुजरात क्लब में, जहां सभी
वकील मिलते थे, हुआ करती थीं। उस वक्त वहां मेरे पिताजी
नरहरिभाई भी थे। सरदार वल्लभभाई पटेल भी गुजरात क्लब में मिलते थे। यह लोग जवान
थे। पहले तो ये लोग गांधीजी की सादा रहने की बातें करते थे, कि
बैरिस्टर होते हुए भी कितने सादा कपड़े पहनते हैं। इन सब बातों को लेकर वे लोग
ठट्टा-मसकरी करते थे और कहते थे कि यह क्या आदमी है, बैरिस्टरी
करके विलायत से आया है पर क्या कपड़े पहनता है। परंतु फिर भी इन लोगों की गांधीजी
के बारे में यह जानने की इच्छा होती थी कि दक्षिण अफ्रीका में इन्होंने इतना काम
कैसे किया।
... सन् 1917 में गांधीजी कोचरब में रहते थे। साबरमती के पास नदी के परले
पार कोचरब एक गांव था, वहां
उनके किसी एक दोस्त ने उनको एक घर दे दिया था। एक दफा शाम को मेरे पिताजी, नरहरि भाई, और महादेव देसाई दोनों वहां गए। इन लोगों
ने सोचा कि हम गांधीजी से मिलेंगे, बातें करेंगे और कहेंगे
कि हमें कुछ काम दीजिए ...।
... गांधीजी ने इन्हें
बताया कि हम तो यहां सुबह चक्की पीसते हैं, फिर खाना
पकाते हैं, बर्तन मलते हैं और फिर कहीं आना-जाना हो तो आते-जाते हैं, लोगों से मिलते हैं। यहां
पर यही काम है। आपको पसंद हो तो इसमें शरीक हो जाओ। इन लोगों के मन में जरा
हिचकिचाहट हुई क्योंकि ये तो वकील थे, फिर सोचने लगे कि क्या
हम ऐसा काम करेंगे? इन्होंने यह बात कही तो नहीं लेकिन मन में सोचा कि यह तो हम
नहीं करेंगे। लेकिन ये वहां जाते रहे और इस तरह धीरे-धीरे इन
कार्यों में इनकी दिलचस्पी होने लगी। जब कोर्ट खतम होता तो पांच-छ: बजे क्लब में
जाने के बदले ये वहां जाने लगे। वहां जाकर कभी-कभी ये चक्की पीसने बैठ जाते थे और
कभी बर्तन साफ करने में गांधीजी की मदद करते। जब गांधीजी कहते कि हमारे साथ खाना
खाओ तो उनके साथ बैठकर खाना भी खा लेते, परंतु खाना पसंद तो
नहीं आता था, क्योंकि दाल और सब्जी में नमक नहीं होता था,
सिर्फ उबली हुई दाल होती थी और मोटी-मोटी
चपाती। अत: ये लोग घर आकर फिर से खाना खाते थे ...।
... लगभग एक साल के अंदर ही,
1917 में, ये लोग आश्रम चले गए। ... कुछ दिनों बाद
साबरमती आश्रम बना, उन
लोगों को जमीन मिल गई। फिर वहां जाने के लिए तय हुआ। उस समय वहां बबूल और बेर सारी
जगह में जंगल की तरह फैला हुआ था। पैर रखने की भी जगह नहीं थी। एक दिन बापूजी ने
कहा कि वहां रहने चलेंगे उस वक्त गांधीजी के साथ उनके दो भतीजे और साकरलाल भाई, किशोरिलाल भाई, नरहरि भाई, इत्यादि
का परिवार था। इसके अलावा गांधीजी के साथ सात-आठ परिवार और
थे, वे सब मिलकर वहां गए।